पत्नी के सुंदरता मे पागल, माँ बाप से किया किनारा
दीनानाथ और सावित्री की आँखों में आज भी वह चमक बसी हुई थी, जब उनका इकलौता बेटा, गौरव, पहली बार उनकी उँगली पकड़कर चला था। गौरव,उनका एकमात्र बेटा था जो उनके बुढ़ापे की लाठी, उनके जीवन का सार था।
गाँव की गलियों में उसकी किलकारियाँ उनके कानों में शहद घोलती थीं। गरीबी की मार झेलते हुए भी दीनानाथ और सावित्री ने गौरव की हर इच्छा पूरी की। फटे कपड़ों में खुद सोते, पर गौरव के लिए नई किताबें लाते। पेट भरकर खुद भूखे रहते, पर गौरव के दूध और फल का हमेशा ध्यान रखते।
गौरव पढ़ने में तेज था। गाँव के सरकारी स्कूल से लेकर शहर के कॉलेज तक, उसने हर परीक्षा में अव्वल स्थान प्राप्त किया। दीनानाथ और सावित्री की छाती गर्व से चौड़ी हो जाती थी।
उन्होंने अपनी छोटी सी जमीन का एक हिस्सा बेचकर गौरव को शहर भेजा था, ताकि वह अच्छी शिक्षा प्राप्त कर सके। उन्हें विश्वास था कि उनका बेटा एक दिन उनका नाम रोशन करेगा।
और गौरव ने किया भी। उसने शहर में प्राइवेट बैंक में मैनेजर के पद पर नौकरी पाई। दीनानाथ और सावित्री की खुशी का ठिकाना न रहा। अब उनके सारे दुख दूर होने वाले थे। उन्होंने सपने संजोने शुरू कर दिए थे – एक छोटा सा पक्का घर, आँगन में तुलसी का पौधा, और नाती-पोतों की किलकारियाँ।
कुछ समय बाद गौरव के विवाह की बात चली। दीनानाथ और सावित्री ने अपनी जमा-पूँजी लगाकर धूमधाम से उसका विवाह रचाया।
बहू, रिया, देखने में अत्यंत सुंदर थी। रिया शहर में रह कर पढ़ने वालीं लड़की थी और शहरी जीवन से प्रभावित थी। गाँव की सीधी-सादी सावित्री रिया की शहरी चमक-दमक देखकर थोड़ी घबरा गई थी, पर गौरव की खुशी में उन्होंने अपनी आशंकाओं को दबा दिया।
धीरे-धीरे रिया का असली रूप सामने आने लगा। वह घर के कामों से जी चुराती थी और सारा दिन सजने-संवरने में लगी रहती थी। सावित्री उसे कुछ कहती तो वह पलटकर जवाब देती या फिर गौरव से शिकायत करती।
गौरव, अपनी पत्नी की सुंदरता और आधुनिक विचारों के आगे अपनी माँ-बाप की ममता और संस्कारों को भूलता चला गया।
एक दिन दीनानाथ ने अपनी बची हुई थोड़ी सी जमीन भी गौरव के नाम कर दी, यह सोचकर कि अब सब कुछ उसका ही है। उन्हें क्या पता था कि यह उनकी सबसे बड़ी भूल साबित होगी। जमीन मिलते ही रिया के तेवर और भी बदल गए। अब उसे सास-ससुर के साथ एक ही घर में रहना भी गवारा नहीं था।
घर में छोटी-छोटी बातों पर झगड़े होने लगे। रिया हर बात में नुक्स निकालती और गौरव हमेशा अपनी पत्नी का ही साथ देता। दीनानाथ और सावित्री लाचार होकर अपने ही घर में पराये हो गए।
जिस बेटे को उन्होंने अपनी जान से ज्यादा चाहा था, वह आज अपनी पत्नी के मोह में अंधा होकर उनका अपमान कर रहा था।
एक शाम, जब रिया ने हद पार कर दी और सावित्री को बुरी तरह से सुना दिया, तो दीनानाथ का धैर्य टूट गया। उन्होंने गौरव से अपनी पीड़ा व्यक्त की, पर गौरव ने अनसुना कर दिया। उस रात दीनानाथ और सावित्री ने एक कठोर निर्णय लिया। जिस घर को उन्होंने अपने खून-पसीने से सींचा था, उसे छोड़कर चले जाने का निर्णय।
अगली सुबह, सूरज निकलने से पहले, दो बूढ़े कंधे झुके हुए कदमों से अपने घर से निकल पड़े। उनकी आँखों में आँसुओं का सागर उमड़ रहा था। जिस बेटे के लिए उन्होंने अपना जीवन समर्पित कर दिया था, उसने उन्हें बेसहारा छोड़ दिया था। गाँव के बाहर बने एक वृद्ध आश्रम में उन्होंने शरण ली।
वृद्धाश्रम के छोटे से कमरे में दीनानाथ और सावित्री एक-दूसरे को सहारा देते हुए दिन बिताते थे। उन्हें गौरव की याद हर पल सताती थी। वे अक्सर उसकी बचपन की बातें याद करते और फूट-फूटकर रोते।
सावित्री, गौरव के पसंदीदा पकवानों की बात करती और दीनानाथ उसकी शरारतों को याद करके आहें भरते।
काफी समय बीतने के बाद भी गौरव कभी उन्हें देखने नहीं आया। शायद रिया ने उसे आने नहीं दिया या शायद वह खुद ही अपनी नई दुनिया में इतना खो गया था कि उसे अपने बूढ़े माँ-बाप की याद भी न रही।
दीनानाथ का शरीर अब जवाब देने लगा था। बेटे की याद में उनका दिल कमजोर हो गया था।
सर्दी के दिनों में सुबह, सावित्री ने दीनानाथ को जगाने की कोशिश की, पर वह उठे नहीं। क्यु की दीनानाथ हमेशा के लिए सो चुके थे। उनकी आँखों में अपने बेटे की एक धुंधली सी तस्वीर थी और होठों पर एक अधूरी मुस्कान। सावित्री का तो जैसे सब कुछ लुट गया। जिस सहारे के दम पर वह जी रही थी, वह भी अब छूट गया था।
कुछ महीने बाद, अपने पति की याद में सावित्री भी चल बसीं। उनकी आँख भी आधी खुली हुई थी, यह मानों की वह अपने बेटे के आने का राह देख रही हो।
वृद्धाश्रम के कर्मचारियों ने अपनी मां के देहांत की खबर गौरव तक पहुंचाई। यह खबर सुन ने के बाद भी गौरव को कुछ भी फर्क़ नहीं हुआ। जिसके लिए माता-पिता ने अपना सर्वस्व त्याग दिया था उसके आखों में से आसुओं का एक भी बूंद नहीं गिरा।
यह देखते हुए वृद्धाश्रम के कर्मचारियों ने उनका अंतिम संस्कार कर दिया।
कहानी की सीख:
यह कहानी हमें सिखाती है कि बच्चों के प्रति अत्यधिक मोह और बिना सोचे-समझे उन पर सब कुछ न्यौछावर कर देना कभी-कभी दुखद परिणाम दे सकता है।
हमें अपने बच्चों को संस्कार और मूल्यों की शिक्षा देनी चाहिए, ताकि वे बड़े होकर अपने माता-पिता का सम्मान करें और रिश्तों की अहमियत को समझें।
धन-दौलत और बाहरी सुंदरता से ज्यादा, मानवीय संबंध और पारिवारिक प्रेम जीवन में सच्चा सुख और शांति लाते हैं।
माता-पिता का त्याग और बलिदान कभी व्यर्थ नहीं जाना चाहिए, और बच्चों को हमेशा उनका आभारी रहना चाहिए।
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