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बेटी और समाज | Beti Our Samaaj | हिन्दी कहानी | Moral story in hindi


गाँव के बाहर, पीपल के पेड़ की छाँव में बैठी जमुना अपनी सहेलियों के साथ बतिया रही थी। उसकी आँखों में भविष्य के सपने पल रहे थे, लेकिन कहीं न कहीं एक डर भी छिपा था। 
Credit: www.pixabay.com

जमुना पढ़ने-लिखने में बहुत तेज थी, हमेशा अपनी कक्षा में अव्वल आती थी। उसके सपने बड़े थे, वह कुछ बनकर दिखाना चाहती थी, लेकिन उसके माता-पिता और समाज की सोच उसे कहीं न कहीं बाँध रही थी।

जमुना के माता-पिता, रामलाल और शांति देवी, भले ही सीधे-सादे और भले लोग थे, लेकिन वे समाज की बंधनों में जकड़े हुए थे। गाँव में लड़कियों को ज्यादा पढ़ने-लिखने या घर से बाहर निकलने की आजादी नहीं थी। 
रामलाल अक्सर कहते, "हमारी बेटी है, इसे घर का काम सीखना चाहिए। ज्यादा पढ़कर क्या करेगी? आखिर तो इसे चूल्हा-चौका ही संभालना है।" शांति देवी भी इसी बात का समर्थन करती थीं, उन्हें डर था कि अगर उनकी बेटी ज्यादा पढ़ेगी या खुलेगी तो समाज क्या कहेगा।

जमुना यह सब सुनती थी और अंदर ही अंदर घुटती रहती थी। उसका मन पढ़ाई में लगता था, वह नई चीजें सीखना चाहती थी, दुनिया देखना चाहती थी। लेकिन उसे पता था कि उसके सपनों और उसके परिवार की सोच में एक गहरी खाई है।

एक दिन, जमुना ने अपनी माँ से हिम्मत करके बात की। "माँ, मेरा पढ़ने में मन लगता है। क्या मैं आगे पढ़ाई कर सकती हूँ?"

शांति देवी ने प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा, लेकिन उनकी आँखों में चिंता झलक रही थी। "बेटा, तुम्हारी बात तो ठीक है, लेकिन समाज क्या कहेगा? लोग तरह-तरह की बातें करेंगे। हमें अपनी मर्यादा का भी तो ध्यान रखना है।"

जमुना समझ गई कि उसकी माँ भी समाज के डर से बंधी हुई है। उसने अपने पिता से भी बात करने की कोशिश की, लेकिन उनका जवाब भी वही था। "देखो बेटी, हम गरीब लोग हैं। ज्यादा पढ़ाई-लिखाई हमारे बस की बात नहीं। और फिर, लड़कियों का ज्यादा पढ़ना अच्छा नहीं माना जाता।"

जमुना का दिल टूट गया। उसे लगा जैसे उसके सपनों पर किसी ने पत्थर रख दिया हो। लेकिन उसके अंदर एक छोटी सी उम्मीद अभी भी जिंदा थी। उसने चुपचाप अपनी पढ़ाई जारी रखी। स्कूल में वह पूरी लगन से पढ़ती, घर आकर भी समय निकालकर अपनी किताबों में डूबी रहती।

समय बीतता गया। जमुना बड़ी हो रही थी। उसकी लगन और मेहनत रंग ला रही थी। उसने दसवीं कक्षा में पूरे गाँव में सबसे ज्यादा अंक प्राप्त किए। यह देखकर उसके माता-पिता भी हैरान रह गए। गाँव के कुछ लोगों ने रामलाल और शांति देवी को बधाई दी, लेकिन कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने अभी भी अपनी दकियानूसी सोच नहीं बदली थी।

"देखो रामलाल, तुम्हारी बेटी बहुत आगे जा रही है। अब इसे संभालो, कहीं ये हाथ से निकल न जाए," एक पड़ोसी ने कहा।
रामलाल और शांति देवी अब दुविधा में पड़ गए थे। उन्हें अपनी बेटी की तरक्की पर गर्व भी हो रहा था और समाज के डर भी सता रहा था।

जमुना ने हार नहीं मानी थी। दसवीं के बाद उसने ग्यारहवीं में दाखिला लिया और फिर बारहवीं भी अच्छे अंकों से पास की। इस दौरान, उसके शिक्षकों ने उसे बहुत प्रोत्साहित किया। उन्होंने जमुना के माता-पिता को समझाया कि उनकी बेटी में बहुत प्रतिभा है और उसे आगे बढ़ने का मौका देना चाहिए।

धीरे-धीरे रामलाल और शांति देवी की सोच में बदलाव आने लगा। अपनी बेटी की मेहनत और लगन देखकर उनका मन पिघल गया। उन्हें यह भी एहसास हुआ कि समाज की चिंता में वे अपनी बेटी के भविष्य को अंधेरे में धकेल रहे थे।

एक दिन, रामलाल ने जमुना से कहा, "बेटी, तुम आगे पढ़ना चाहती हो तो पढ़ो। हम तुम्हें रोकेंगे नहीं। हमें खुशी होगी अगर तुम कुछ बन जाओ।"

यह सुनकर जमुना की आँखों में आँसू आ गए। यह उसके जीवन का सबसे खुशी का पल था। उसे अपने माता-पिता का साथ मिल गया था।

जमुना ने जमकर पढ़ाई की और आखिरकार उसने सिविल सेवा परीक्षा में सफलता प्राप्त की। वह कलेक्टर बन गई। पूरे गाँव में खुशी की लहर दौड़ गई। जिन लोगों ने कभी जमुना की पढ़ाई पर सवाल उठाए थे, वे आज उसकी सफलता पर गर्व कर रहे थे।

रामलाल और शांति देवी का सीना गर्व से चौड़ा हो गया। उनकी बेटी ने न सिर्फ अपना बल्कि पूरे परिवार और गाँव का नाम रोशन कर दिया था। उन्हें अब समाज की बातों की कोई परवाह नहीं थी। उनकी बेटी ने साबित कर दिया था कि अगर लड़कियों को मौका मिले तो वे भी आसमान छू सकती हैं।

जमुना जब पहली बार कलेक्टर बनकर अपने गाँव आई तो पूरा गाँव उसे देखने के लिए उमड़ पड़ा। रामलाल और शांति देवी की आँखों में खुशी के आँसू थे। उनकी बेटी, जिसे कभी घर की चारदीवारी में कैद रखने की सलाह दी जाती थी, आज एक ऊँचे पद पर पहुँचकर सबका सम्मान पा रही थी।

जमुना ने अपने भाषण में कहा, "मैं आज जो कुछ भी हूँ, अपने माता-पिता और अपने शिक्षकों के आशीर्वाद से हूँ। उन्होंने मुझ पर विश्वास किया और मुझे आगे बढ़ने का हौसला दिया। मैं चाहती हूँ कि हर लड़की को अपने सपने पूरे करने का मौका मिले। समाज क्या कहेगा, यह डर हमें कभी अपने बच्चों के भविष्य को बांधने नहीं देना चाहिए।"

जमुना की कहानी गाँव की दूसरी लड़कियों के लिए प्रेरणा बन गई। अब माता-पिता अपनी बेटियों को पढ़ाने-लिखाने और आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करने लगे थे। समाज की सोच धीरे-धीरे बदल रही थी।

रामलाल और शांति देवी अब गाँव में एक मिसाल बन चुके थे। लोग उनकी बेटी की सफलता की कहानी सुनाते थे और कहते थे कि उन्होंने अपनी बेटी को खुली छूट देकर बहुत अच्छा किया। उन्हें इस बात का एहसास हो गया था कि बच्चों की तरक्की में ही माता-पिता की सच्ची खुशी छिपी होती है, न कि समाज के डर में।

जमुना ने अपनी मेहनत और लगन से न सिर्फ अपना सपना पूरा किया बल्कि अपने माता-पिता और अपने गाँव का भी नाम रोशन किया। 

 यह कहानी सिखाती है कि समाज के बंधनों को तोड़कर भी सफलता हासिल की जा सकती है, और जब बेटियाँ आगे बढ़ती हैं तो पूरा परिवार और समाज गौरवान्वित होता है। 

माँ-बाप की सच्ची खुशी अपनी संतान की तरक्की में ही है।

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