गाँव के छोर पर, पीपल के घने पेड़ों के नीचे, प्रेमचंद की सरकारी राशन की दुकान थी।
यूँ तो यह दुकान गाँव के गरीब और ज़रूरतमंद लोगों को सरकारी रियायती दरों पर अनाज उपलब्ध कराने के लिए बनाई गई थी, लेकिन प्रेमचंद इसे अपनी जागीर समझता था। उसका व्यवहार गाँव वालों के साथ हमेशा से ही रूखा और अपमानजनक रहा था।
सुबह होते ही, जब गाँव की औरतें और मर्द, फटे-पुराने कपड़े पहने, अपने खाली बोरे और कनस्तर लिए राशन की दुकान पर लाइन लगाते, प्रेमचंद अपनी कुर्सी पर बैठा रहता। उसकी आँखों में न तो कोई दया दिखती थी और न ही कोई सम्मान। गाँव के ज़्यादातर लोग अनपढ़ थे, दुनियादारी की समझ कम थी, और बस पेट भरने की चिंता में लगे रहते थे। इसी बात का फायदा प्रेमचंद उठाता था।
अक्सर जब कोई अपनी बारी का इंतज़ार करता, तो प्रेमचंद जानबूझकर उसे घंटों खड़ा रखता। और जब उस गरीब आदमी की बारी आती, तो प्रेमचंद उसे अनाज देने की बजाय, पहले उसकी गरीबी का मज़ाक उड़ाता, उसके कपड़ों पर टिप्पणी करता, और फिर गालियों पर उतर आता। "अरे ओ भिखारी! तेरे लिए ही दुकान खोल रखी है क्या? चल हट, पीछे हो जा!" ऐसे शब्द उसकी ज़ुबान पर आम थे।
गाँव के भोले-भाले लोग, जिनका जीवन ही संघर्ष से भरा था, ये सब चुपचाप सह लेते थे। उन्हें पता था कि अगर प्रेमचंद से झगड़ा किया, तो राशन मिलेगा ही नहीं, और बिना राशन के उनके बच्चे भूखे रह जाएँगे। उनका स्वाभिमान, उनकी इज़्ज़त, सब प्रेमचंद की गालियों के तले कुचल जाती थी।
प्रेमचंद की बेईमानी सिर्फ़ बदतमीज़ी तक ही सीमित नहीं थी। उसके गोदाम में सरकारी अनाज का ढेर लगा रहता था, लेकिन जब कोई गाँव वाला राशन लेने आता, तो उसे पूरा अनाज कभी नहीं मिलता था।
रजिस्टर में पूरा नाम चढ़ाया जाता, पूरी मात्रा लिखी जाती, लेकिन असल में उस गरीब के बोरे में आधा या उससे भी कम अनाज डाला जाता था। अगर कोई हिम्मत करके पूछता, "बाबूजी, मेरा राशन कम क्यों है?" तो प्रेमचंद उसे तुरंत डाँट देता, "जितना दिया है, उतना ही मिलेगा। ज़्यादा सवाल मत पूछ, वरना अगले महीने से कुछ नहीं मिलेगा।" गाँव वाले यह सब देख कर भी कुछ नहीं कर पाते थे। उनके पास न तो कोई सबूत था और न ही कोई आवाज़ उठाने वाला। वे बस अपने भाग्य को कोसते और प्रेमचंद के अत्याचार सहते रहते।
प्रेमचंद गाँव के गरीब लोगों का खून चूस रहा था, उनके हिस्से का अनाज बेचकर खुद मोटा हो रहा था।
साल में एक या दो बार तो ऐसा भी होता था कि राशन से भरा पूरा ट्रक गोदाम में आने से पहले ही प्रेमचंद बेच देता था।
गाँव में जब राशन नहीं आता, तो वह बहाना बना देता, "क्या करूँ भाई? सरकार ने इस हफ़्ते अनाज भेजा ही नहीं।" गाँव वाले उसकी बात पर विश्वास कर लेते, क्योंकि उन्हें लगता था कि सरकारी काम है, शायद कभी-कभी देरी हो जाती होगी। वे भूखे पेट अगले हफ़्ते का इंतज़ार करते और प्रेमचंद अपनी काली कमाई से और ऐश करता।
गाँव में प्रेमचंद का राज चल रहा था। कोई भी उसके खिलाफ़ बोलने की हिम्मत नहीं करता था। लेकिन कहते हैं न, हर अंधेरे के बाद उजाला आता है।
रोहित का आगमन और संघर्ष
एक दिन, गाँव का एक लड़का, रोहित, अपने गाँव लौटता है। रोहित बचपन से ही पढ़ने में होशियार था। वह गाँव से बाहर शहर में रहकर पढ़ाई कर रहा था और अब उसकी पढ़ाई पूरी हो चुकी थी। वह गाँव की पुरानी गलियों में घूमता, बचपन के दोस्तों से मिलता, और अपने गाँव के बदलावों को देखता। एक दिन, उसकी माँ ने उसे राशन लाने के लिए दुकान पर भेजा। रोहित ने पहले कभी राशन की दुकान पर जाकर राशन नहीं लिया था।
वह जब दुकान पर पहुँचा, तो उसने देखा कि लाइन में लगे लोग प्रेमचंद की गालियाँ सुन रहे थे और चुपचाप सह रहे थे। उसे यह देखकर बहुत बुरा लगा। जब उसकी बारी आई, तो प्रेमचंद ने उसे भी डाँटा और कम राशन दिया। रोहित ने तुरंत इस बात को नोटिस किया।
उसने देखा कि रजिस्टर में पूरा अनाज लिखा था, लेकिन उसके बोरे में बहुत कम था। रोहित ने हिम्मत करके प्रेमचंद से पूछा, "बाबूजी, मेरा राशन कम क्यों है? रजिस्टर में तो पूरा लिखा है।" प्रेमचंद यह सुनकर आग बबूला हो गया। उसने रोहित को गालियाँ देना शुरू कर दिया, "तू कौन होता है मुझसे सवाल करने वाला? चल निकल यहाँ से! अगले महीने से तेरे घर एक दाना भी नहीं आएगा!"
रोहित को गुस्सा तो बहुत आया, लेकिन उसने अपनी समझदारी का इस्तेमाल किया। उसे पता था कि प्रेमचंद से सीधे झगड़ा करने से कुछ नहीं होगा। उसने चुपचाप कम राशन लिया और घर आ गया। घर आकर उसने अपनी माँ और गाँव के कुछ बुजुर्गों से बात की। उसे पता चला कि प्रेमचंद हमेशा से ऐसा ही करता आ रहा है। गाँव वाले उसकी ज़्यादतियों से परेशान थे, लेकिन उन्हें कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था।
रोहित ने ठान लिया कि वह इस अन्याय को नहीं सहेगा। उसने तुरंत राज्य सरकार की शिकायत पोर्टल पर एक फ़रियाद भेजी। उसने पूरी घटना का वर्णन किया, प्रेमचंद की बदतमीज़ियों, कम राशन देने, और अनाज बेचने की सारी जानकारी दी। उसने यह भी बताया कि कैसे गाँव के अनपढ़ और गरीब लोग उसकी ज़्यादतियों के शिकार हो रहे हैं।
न्याय और नई सुबह
राज्य सरकार ने रोहित की फ़रियाद को गंभीरता से लिया। कुछ ही दिनों में, एक निरीक्षण टीम अचानक गाँव पहुँची। टीम ने सीधे प्रेमचंद की दुकान पर जाने की बजाय, गाँव वालों के घरों में जाकर उनके राशन की जाँच करना शुरू किया। उन्होंने हर घर से पूछा कि उन्हें कितना राशन मिलता है, और रजिस्टर में कितना लिखा जाता है। गाँव वालों ने पहली बार बिना किसी डर के अपनी आपबीती सुनाई। सबने बताया कि उन्हें हमेशा कम राशन मिलता था और प्रेमचंद उनके साथ बदतमीज़ी करता था।
निरीक्षण टीम ने हर घर से मिले राशन और उनके पास मौजूद रसीदों का मिलान किया, और हर जगह उन्हें गड़बड़ी मिली।
सबके पास कम राशन पाया गया। टीम के पास प्रेमचंद के खिलाफ़ पुख्ता सबूत थे। उन्होंने तुरंत प्रेमचंद को बुलाकर पूछताछ की। प्रेमचंद पहले तो झूठ बोलता रहा, लेकिन जब उसे सबूत दिखाए गए, तो वह घबरा गया। अंत में, उसे अपनी चोरी और धोखाधड़ी स्वीकार करनी पड़ी।
राज्य सरकार ने तुरंत कार्रवाई की। प्रेमचंद को सरकारी राशन की दुकान से बर्खास्त कर दिया गया। यह खबर सुनते ही पूरे गाँव में खुशी की लहर दौड़ गई। लोगों ने राहत की साँस ली।
इसके बाद, सरकार ने गाँव में नए सिरे से राशन वितरण की व्यवस्था की। सभी गाँव वालों को उनका बचा हुआ और पूरा राशन फिर से मिला। अब उन्हें पूरा अनाज मिलने लगा था और कोई उनके साथ बदतमीज़ी नहीं करता था।
पूरे गाँव में रोहित की बहादुरी और सूझबूझ की सराहना की गई। उसने सिर्फ़ एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि पूरे गाँव की मदद की थी। उसने दिखाया कि अगर कोई अन्याय के खिलाफ़ आवाज़ उठाए, तो बदलाव ज़रूर आता है।
शिक्षा
इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि अन्याय को कभी सहन नहीं करना चाहिए। अगर हम एकजुट होकर अन्याय के खिलाफ़ आवाज़ उठाएँ, तो हम उसे हरा सकते हैं। शिक्षा और जागरूकता हमें अपने अधिकारों के लिए लड़ने की शक्ति देती है। हमें हमेशा सच के लिए खड़ा होना चाहिए, भले ही रास्ता कितना भी मुश्किल क्यों न हो। एक व्यक्ति की हिम्मत पूरे समुदाय के लिए रोशनी बन सकती है।
0 टिप्पणियाँ